हम जरूरत से अधिक प्रतिक्रियावादी होते जा रहे हैं. हमारी ओर उछाले जाने वाली हर बात, टिप्पणी का उसी पल उत्तर देना हमें बहुत अधिक बहुर्मखी, प्रतिक्रियावादी बना रहा है. हर चीज पर लड़ने को तैयार, बात-बात पर फड़कती भुजाएं लिए हम कैसे रचनात्मक दुनिया बनाएंगे. किसी भी चीज को कहने सुनने और समझने का सलीका हम भूलते जा रहे हैं. सोशल मीडिया हमारे निजी जीवन को इतना अधिक प्रभावित कर रहा है, जितना शायद हमें अंदाजा भी ना रहा होगा. दुनिया ‘एक राग-एक रंग’ में इतनी डूबती जा रही है कि उसे इस बात का ख्याल ही नहीं कि जिस दिन हम एक सुर में बोलने लग जाएंगे, हम सब बेसुरे हो जाएंगे.
एक मित्र ने रविवार को फोन किया. हम सामान्य चीजों पर बात कर रहे थे. हम कैसे हैं, परिवार में क्या चल रहा है. अचानक वह कोरोना को लेकर आने वाले सामाजिक प्रभाव, समाज के नजरिए पर मेरे विचार से क्रोधित हो गए. जबकि वह बहुत भले आदमी हैं. लेकिन इन दिनों हर वह आदमी जो फेसबुक के प्रभाव में है, अपनी प्रतिक्रिया को लेकर बहुत अधिक जल्दी में है. हम अपनी सोच को सर्वोत्तम मान बैठे हैं. तुरंत फैसला सुना देना चाहते हैं. यकीन मानिए, इस वक्त लोगों के दिमाग को नियंत्रित करना जितना आसान है, वैसा पहले कभी नहीं था.
अपनी पूरी ऊर्जा और विचार प्रक्रिया को अगले कुछ घंटों के लिए उन्होंने अशांत किया ही. एक बार मन अशांत हो जाए तो वह कहां किस पर बरस पडे़, कोई ठिकाना नहीं होता! मन की शांति वैसे भी कोई बाहरी चीज़ नहीं! वह बाहर के कारणों पर जितनी अधिक निर्भर करती है, उससे कहीं अधिक वह नितांत भीतरी विषय वस्तु है. हम हर चीज में इतनी जल्दी प्रतिक्रिया (रिएक्शन) देने लगे हैं कि कभी-कभी लगता है कि अगर एक मिनट की देरी हो जाए, तो न जाने कितना नुकसान हो जाएगा.
थोड़ा पीछे जाइए. उन दिनों की ओर जब टेलीफोन तक आसानी से सुलभ नहीं थे. हमारे पास प्रतिक्रिया देने के लिए मिलना या चिट्ठी लिखना ही सबसे बड़ा माध्यम था. उस वक्त के मानसिक संकट को आज के मुकाबले खड़ा करके देखिए. हाइपर टेंशन, ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और तनाव यह सब आज के मुकाबले उस वक्त बहुत कम थे. कम होने के अनेक कारणों में हमारी प्रतिक्रिया देने (रिएक्ट करने) का समय भी शामिल था.
लखनऊ से सुरेश सिंह लिखते हैं, लगभग दस साल पहले मैं अपने अजीज़ मित्र की किसी बात से नाराज हो गया था. उसके दस दिन बाद मैंने उन्हें पत्र लिखा. तब तक मैंने सभी चीजों पर विचार किया था. उनको पत्र मिलने में कम से कम एक सप्ताह का समय लगा. उसके बाद उनकी ओर से उत्तर आने में कम से कम पांच दिन लगे. हमारे मिलने में तो बहुत वक्त लग गया. लेकिन कोई चीज मन में फंसी नहीं रही. कहते वक्त दिमाग और दिल की गति सामान्य थी.
सुरेश ने जो किया, अब वह संभव नहीं. अब तो हर समय हम तुरंत लड़ने को तैयार रहते हैं. इससे रिश्ते बहुत अधिक कमजोर और हमेशा टूटने की कगार पर रहते हैं.
दोनों पक्ष बिना कहे ही समझ जाएं. यह संभव है कि संबंधित पक्ष स्वयं ही अपनी गलती स्वीकार कर लें. रिश्तों में, वह चाहे जिस रूप में भी हों, तुरंत कह देने की आदत के कारण बहुत अधिक संकट में पड़ते हैं. उनमें एक-दूसरे को सुनने और सहने की क्षमता कम होती जा रही है. साथ रहने का अर्थ केवल चौबीस घंटे प्रसन्नता नहीं. असहमति, भिन्नता भी है. एक-दूसरे को सहना भी है. हम जितना सहने को समझते जाते हैं, उतना जीवन की ओर बढ़ते जाते हैं. सहने का अर्थ अन्याय से नहीं है. इसका अर्थ एक-दूसरे की भिन्नता और असहमति के आदर से है.
इस बात से है कि शांति का संबंध हमारी आंतरिक ऊर्जा से कहीं अधिक जुड़ा हुआ है. शांति बाहर से नियंत्रित नहीं होती, वह भीतर से ही आती है. ठीक इसी तरह अशांति का संबंध बाहर से उतना नहीं है, जितना भी भीतर से है.
इसलिए प्रतिक्रिया देने में थोड़ा संयम होना ही चाहिए. भले ही वह घर, परिवार, दोस्तों, पतिपत्नीबच्चों के बीच ही क्यों न हो. यह अभ्यास की बात है. धीरे-धीरे आएगी.