जीवनसंवाद : सब कुछ कहां है

हम अपनी मूल जरूरतों के पूरा होने पर जिन बहुत सारी चीजों को खोजते रहते हैं, उनमें सबसे खास‌ वह एहसास होता है, जिसमें हमें अपने होने का बोध हो. जहां कहीं पहुंचकर हमें लगे हम जो कर सकते हैं, वह कर रहे हैं. अपने-अपने अनुभव के अनुसार हम उन चीज़ों की तलाश करते हैं, जो हमें मानसिक रूप से आनंदित करती हैं. हमें सांत्वना देती हैं. संभाले रखते हैं. उस समय जब हम खुद को उथल-पुथल के बीच पाते हैं. कोरोना का संकट भी असल में हमारी करुणा का सवाल भी है. हम भीतर से कितने मजबूत, सबल और सहृदय हैं, उसके लिए इस बात से अच्छा कोई दूसरा पैमाना नहीं.

हम बहुत सारे ऐसे लोगों के बारे में आए दिन पढ़ते रहते हैं, जिन्होंने हमारी दृष्टि में सब कुछ होने के बाद भी जीवन से बाहर जाने का विकल्प चुना. उन्होंनेे जीवन से पलायन चुना. ऐसा क्यों होता है कि जिन चीज़ों के लिए सारी दुनिया दौड़ती भागती रहती है, जिसको वह हासिल हो जाती हैं, वह उससे बहुत जल्दी ऊब जाते हैं. ‌ 'लॉक डाउन' के बाद 'जीवन संवाद' को बड़ी संख्या में ऐसे ई-मेल, संदेश मिले हैं जिसमें जीवन की ऊब, 'सब कुछ' होने के बाद भी निराशा और उदासी के स्वर हैं.


जापानी कवि, जे़न गुरु रयोकन ने जीवन के संदर्भ में बड़ी सुंदर बात कही है. जिसे मैं आपके लिए थोड़ा सरल, संपादित करते हुए साझा कर रहा हूं. वह लिखते हैं, भले ही आप इतनी पुस्तकें पढ़ लें, जितने गंगा के रेतकण हैं, उसके बाद भी सारा ज्ञान, अब भी उस वास्तविक ज्ञान से बहुत दूर है. जो केवल इतना है कि 'सब कुछ आपके हृदय में है. भीतर है.' रयोकन कहते हैं- हमारी ऊर्जा और सुख हमारे भीतर ही हैं. सब कुछ केवल हमारे भीतर है. हम बाहर जो भी हैं, वह केवल भीतर की प्रति ध्वनि हैं.



जो बात रयोकन कह रहे हैं उसे ज़रा उन घटनाओं से जोड़ कर देखिए, जो हमारे आसपास इन दिनों बहुत तेजी से घटती दिखती हैं. रिश्तों का टूटना, आज शादी कल तलाक़. लिव इन रिलेशनशिप में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास की गहरी छाया. जिन लोगों के पास अकूत संपत्ति है. वह सुख हैं, जिनके लिए सामान्य व्यक्ति तरसता है, वह क्यों जीवन से पलायन का विकल्प चुन रहे हैं. वह क्यों गहरी निराशा की ओर बढ़ रहे हैं. तमन्ना कभी थमने का नाम क्यों नहीं लेती. यह गहरी निराशा और उदासी धीरे-धीरे उन्हें अवसाद और आत्महत्या की ओर ले जाती है.





अब जो भीतर है, उस तक कैसे पहुंचा जाए. कैसे हम इस बात को समझें कि हम दुनिया से कम से कम व्यथित हों. 'जीवन संवाद' में हम बार-बार सबसे अधिक किस बात पर जोर देते हैं वह केवल इतनी है कि, 'दूसरों को स्वयं को दुखी करने की इजाज़त मत दीजिए.' यह एक ऐसी बात है जिसने मेरे जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है. इससे हम न जाने कितने अनचाहे संकटों से बच सकते हैं.


हम अपने होने, जिम्मेदारी और दायित्व को इतना निजी बना लेते हैं कि बाहर की दुनिया के साथ-साथ अपने ही भीतर की दुनिया से कटने लगते हैं. जैसे-जैसे कटाव बढ़ने लगता है, हम भीतर से एकरसता, ऊब, निराशा से भरने लगते हैं. हम डूबने लगते हैं, उस अंधेरे कुएं में जो संभव है, किसी और को न दिखे. जो हमारे आसपास हैं वह अक्सर ऐसे कुएं को नहीं देख पाते. इसलिए तो जिन परिवारों में लोग आत्महत्या कर लेते हैं, वह यही तो कहते हैं- अरे! वह, बाहर से तो बहुत खुश था. उसने कभी बताया नहीं उसे क्या दुख था! बहुत संभव है उसने न बताया हो, लेकिन यह भी संभव है कि हमने सुना ही न हो.



इतना शोर है, हमारे बाहर कि हम भीतर देख ही नहीं पाते. हम तक पहुंचने का हक रखने वाली आवाज़ें कई बार अनसुनी रह जाती हैं. जिनको हम नहीं सुन पाते, संभव है उनको दूसरे भी न सुन पाएं. इसलिए, ऐसे मन बढ़ते जा रहे हैैं, जो बाहर से तो सुखी हैं लेकिन उनके भीतर दुख जम रहा है. हमें इन तक शीघ्रता से पहुंचना है. यह मन अंदर से रिक्त होते जा रहे हैं. इनके भीतर एक किस्म का खालीपन बढ़ता जा रहा है.

यह कैसे रुकेगा. पहले तो यह रुकेगा, हमारी अपनी सजगता से. जीवन के प्रति श्रद्धा और आस्था से. दूसरा, यह उन लोगों से रुकेगा जो हमारे आसपास हैं. वह हमारा ख्याल रखें और हम उनका. इससे करुणा बढ़ती है. प्यार और स्नेह बढ़ता है. करुणा बढ़ने से एक-दूसरे को सुनने और समझने की शक्ति बढ़ती है. इस शक्ति से हम अपने भीतर के खालीपन से बहुत हद तक लड़ सकते हैं. उसे जीत सकते हैं.